Saturday, October 9, 2010

ओस की बूंद पर चमकती कुनकुनी धूप,,
उमीद की घास को और हरा करती है,,
ओस के साथ पलते सपने भी कुनकुने ,,
उनकी नाजुक कलाईयों की तरह अनमने,,
कुछ पाने की अभिलाषा में तल्लीन,,
तन्हाई की आगोश में लिपटे, सिमटे,,
मंद मंद बहती ठंडी बयार, सिहराती,,
चुपचाप जवानी की तरफ बढ जाती,,
सुबह से शाम, शाम से रात, यही चक्र है,,
जीवन का. यही फलसफा भी, खुद का,,,

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