Monday, May 31, 2010

किसकी कितनी जगह है दिल में कौन यहाँ बेगाना है
बारह घंटे बने हकीकत बाकि सब तो फ़साना है
जोड़ तोड़ में बटी है दुनिया, बही पलटते दिन बीता
किसने पाया कौन है हारा, ये कौन बतलाता है
कंधे पर यू बांध पोटली चल दो राह पकड़ प्यारे
ये दुनिया बेगानी साथी अब किसे लौट कर आना है
दस्तूर भी है, सिद्धांत यही, जब समझो तब समझ खुले
बही पलटते बीता जीवन अब कैसा पछताना है
कलम बदल गयी लोगो के मिजाज़ की तरह, सियासत और सरकार की तरह,
समाज क्या बदला कलम भी बदल डाली, अब किसे याद है श्याही की होली
शब्दों को बदलने के लिए पड़ा लिखा होना जरूरी था, बड़ी माथापच्ची थी
पूरे समाज को इस काम के लिए साथ लेना जरूरी था, कौन पचड़े में पड़ता
हमने अपनी सारी खुन्नस कलम पर ही उतारी, कलम बदल डाली
जिस तरह हमने कलम बदली, खुद को भी बदला होता
स्वार्थ का फटा चोला उतार कर मानवता का दामन पकड़ा होता
बहुत पचड़े थे इस कम को अंजाम तक पहचाने में, खुद भी फसने का डर था
लोगो की सोच बदलने की छमता थी कहा किसी में, सोचा कलम बदल डालो
कलम बदल जाएगी तो शब्द भी बदल जाये शायद, शब्द बदले तो शयद बदल जायेगा समाज
लेकिन कुछ नहीं बदला, सिर्फ कलम बदली, उसने सही और गलत की सोच ही बदल डाली

Sunday, May 30, 2010

अम्मा जाओ, बड़े आये पाठ पड़ने
किताबी ज्ञान की चाट की दुकान सजाने
अवसरवाद के पानी में डुबो कर बनाये गाये गोलगप्पे
भ्रस्टाचार की सीक में पिरोये दोने में हमे नहीं खाने
तुम्हारी टिकिया पर भिनभिनाती लालच की मक्खिया
लोगो की भूख और लाचारी की दही में डूबे दहीबड़े
नैतिकता के कचालू में पड़े आलू सड़े गले
इन पकवानों के खरीदार और है
उनके पेट की आग और है
वो इन्हें पचा लेगे, लोगो का हक़ खाना उनकी आदत है
हमको अपनों का हक़ खाने की आदत नहीं
कोई और ग्राहक पटाओ, अम्मा जाओ
बड़े आये पाठ पड़ाने

Tuesday, May 25, 2010

चलो सपना देखा जाये, तारो को अंगूठी में पिरोना
आधे चाँद का झूला बना कर पेंग बढाना
आसमान पर पैदल चल कर बादलों से बूंद चुराना
ओस कि बूंद से ढकी घास पर गुलाटी खाना
समुद्र के भीतर मकान बनाना
बरफ से ढके पहाड़ पर धूप सेकना
आकाश में उड़ रही चिडियों को दाना चुगना
सपने है इसलिए इन्हें देखा जा सकता है
लेकिन अब तो सपना देखना भी नामुमकिन सा है
प्रदुषण ने तारो को ढक लिया है
चाँद पर चरखे पर सुँत काटती नानी मर चुकी है
ओस कि बूंदों पर चलना सच सपना ही है
समुद्र प्रदूषण का कोप झेल रहे है
बरफ पहाड़ो पर आब पड़ती ही नहीं
चिडया लुप्त हो रही है
इसलिये सपना देखो हकीकत नहीं देख पाओगे
साल पूरा होने कि वर्षगाठ, क्या मनानी चाहिये,
आदमी को एक हद तक रुलाना चाहिये
आख का पानी गर सूख गया हो तो कहो,
उनकी शुद्धि के लिये एक और भागीरथ चाहिये
झूठ का गुणगान जब तक सहें तब तक करो,
अधिक बोलने से बेहतर चुप ही रहना चाहिये
महगाई कि मार से अधजले पड़े है चूल्हे
इस बात पर हुक्मरानों को शर्म आनी चाहिये
सालगिरह कि सुबह हुवा एक और हादसा
दो दिनों के बाद ट्रेन का रुका रास्ता
नक्सलियो की गोलिया सुर्ख कर रही खाखी को
आखिर क्या हो गया इस देश कि थाती को
इस पर भी दो मिनट का मौन रखना चाहिये
सरकारों को शुद्ध करने के लिये भागीरथ चाहिये

Monday, May 24, 2010

भूखा बचपन आभावो से भरी जवानी
इंसानों कि भीड़ न दाना और न पानी
घिसी पिटी सी सोच दकियानूसी कहानी
आओ हम सब मिल कर गए हम है हिन्दुस्तानी
विकास देश का हो गयी बिसरी कहानी
बेरोजगारी में सूख रही देश की जवानी
घिसी पिटी सी सोच दकियानूसी कहानी
आओ हम सब मिल कर गाये हम है हिन्दुस्तानी
विकास कि राह सभी ने जेबे भरने कि ठानी
उन्हें क्या मतलब कहा गयी बिजली और पानी
घिसी पिटी सी सोच दकियानूसी कहानी
आओ हम सा मिल कर गाये हम है हिन्दुस्तानी
परायी भाषा हमने अपनाने कि ठानी
हिंदी के साथ हो रही आब भी बेमानी
घिसी पिटी सी सोच दकियानूसी कहानी
आओ हम सा मिल कर गाये हम है हिन्दुस्तानी
नहर खा गए, सड़क खा गए
रोटी कपड़ा मकान खा गए
खा गए रोज़गार देश का
भैसों का सारा चारा खा गए
टेलीफ़ोन खा गए तार खा गए
मंदिर मस्जिद साथ खा गए
देश का सौभाग्य खा गए
आपस का विश्वाश खा गए
खा गए गाँधी का सपना
जय जवान जय किसान खा गए
नार खा गए, बांध खा गए
ऊची ऊची मीनार खा गए
पुल खाया पटरी भी खायी
देखो आब गुजरात खा गए
हद कर दी खाने कि सबने
हिंदुस्तान का भाग्य खा गए
कस्ट सह कर यदि हमे यह लगे कि हमने तो सिर्फ कस्ट ही सहा
उससे सीखा कुछ नहीं, तो हमे यह समझ लेना चाहीये कि अब
हमारा कुछ भी होने से रहा, हम जहा है, वाही हमे आजीवन
अपने आप को पड़े रहने के लिये तईयार कर लेना चाहिये
हर सुबह के निकलने के साथ ही
उगता है एक अरमान कामयाबी का
भरता उत्साह अथक परिश्रम का
बौद्धिक स्तर की उचाई ओर गहराई का
प्रयास दर प्रयासओर परिश्रम
अंतर्मन कहता है अब भाग चलो तुम
लेकिन स्वाभिमान रोकता है जूझने को
या तो इस पार या उस पार करने को
हर पल बौद्धिक कसरत, टूटना भी हर पल
समेटना अपने आप को, जूझना भी हर पल
कभी विश्वाश होता है, कल तुम्हारा है
जो रोज़ टुटा है वाही इस पार आया है
फिर जुट जाना रफ़्तार तेज कर
कल हमारा होगा बस यही सोच कर
ये दिल्ली है ये दिल्ली है ये दिलवालो की नगरी है
ये दिल्ली है
यहाँ रोज फैसले होते है, यहाँ भूके बच्चे रोते है
ये दिल्ली है
यहाँ से देश का पेट तो भरता है लेकिन यहाँ भूके नंगे सोते है
ये दिल्ली है
यहाँ पीएम का एक बंगला है, यहाँ मिनिस्टरो का बड़ा रुतबा है
यहाँ मोटरों की एक फौज है. ये दिल्ली है
यहाँ माये भीक भी मांगती है, यहाँ बच्चे पेट देखते है
यहाँ देश भर के विद्वान् आते है, ये दिल्ली है
यहाँ सड़के चौड़ी चौड़ी है, यहाँ पूंजीपतियों की कोठी है
यहाँ खेत न खलिहान है, चाहुओर बस इंसान है
ये दिल्ली है ये दिल्ली है
यहाँ तनहा कुतुबमीनार है, यहाँ इंसानियत बीमार है
यहाँ होता व्यभिचार है, आपस में नहीं प्यार है
ये दिल्ली है
यहाँ उरते हवाईजाहज है, यहाँ रहते बबुसहब है
यहाँ हर चीज़ की कीमत लगती है, यहाँ जिस्म की भी एक सट्टी है
यहाँ धुवो के उठते गुबार है, यहाँ खद्दर में भी दाग है
यहाँ एक चोर बाज़ार है, यहाँ नेताओ की मजार है
यहाँ सहीद इंडियागेट है, यहाँ भूखो का भी पेट है
यहाँ इसको कौन समझता है, जिसको देखो अपनी झोली भरता है
ये दिल्ली है ये दिल्ली है

Sunday, May 23, 2010

वह हौलनाक मंज़र जिसने देश को हिला दिया

उनके सपने टूट गए, अपने उनसे रूठ गए
वतन पहुचना, उम्मीदों का परवान चड़ा
फिर सपने टूटे और धरा पर बिखर गए
जलती आग उधर भी थी और इधर भी
एक उम्मीद न छुटी सुब यही पुर छूट गए
उनके सपने टूट गए, अपने उनसे रूठ गए
दुर्घटना की नाप जोख में बिसरापन
इतनी जल्दी कैसे हम उनको भी भूल गए
उड़ना चलना इंसानी फितरत है
इस फितरत में वो बहुत पीछै छूट गए
अब बीता कल किसे याद रहा करता है
कल की बात यहाँ कौन किया करता है
जिसको जाना था वो तो चला गया
रोना धोना यही बाकि बचा रहा
जिनका अपना छुटा उनका हाल जरा देखो तो
उनके दिल में जमी जड़ो को तुम छु लो तो
साहस करना अलग बात हुवा करती है
दुस्साहस करने की हिम्मत हो तो बोलो
हर पल अनुभवों का
एक विश्वाश प्रस्नचिंह जीवन
विश्वाश कागज़ की नाव बना
ढलती उम्र वह सुखा पेड़
झंझावातो जी झनझनाहट
अब नहीं झेले जाते टूटे विश्वाश
रेगिस्तान जहा नहीं कोई पास
प्यास समुद्र पी जाऊ बुझती नहीं
क्या करू, किधर चालू, किस्से पूछु
कागज़ के उरते जहाज देख याद आया
सब कुछ तो है अभी क्या बिगड़ा है
बस ये लोग जो सचमुच का जहाज उड़ा रहे है
डरे है सहमे है
नीरवता तोडती है, बहुत गहरे तक प्रवाह को
आत्मबल अमरबेल सा पुरुषार्थ लपेटे, अपने होने का अहसास करता है बस
अभी और है इस पाठशाला में तुम्हारे लिये
सेखो भी और तोड़ो नीरवता असहनीय
आत्मबल पराजित नीरवता नहीं टूटी
न ही टुटा विश्वाश समय बहुत है
बिखरी पंखुरिय समेट फूल बनाने की बात
रक्तरंजित पाँव रक्तवर्णित छाप
फैले पंजे मति पर, करो की राह
आहात सुनने को मै बेताब
नीरवता फैली है चाहु ओर चाहु ओर
प्रफुल्लित ह्रदय वह नाच रहा है मोर
भोर, कोलाहल, हलाहल, मानव की बढती बाड़
पत्थरों के जंगल, धुवो के उठते गुबार
नीरवता अब भी वैसी है जैसी थी
किसे परवाह है इसकी समय कहा है
अब मै दोहरा रहा हू इस भीड़ में
एकला चलो रे एकला चलो रे
सूखी शाखे, बिखरे पत्ते, जमीन के बहार निकली जड़े
अस्तित्व का आखरी बिखराव
जलती सय्या, मिटते अस्तित्व को देखते स्वजन
घर जाने की जल्दी, भूख, थकान. इतनी जल्दी बीता हुवा कल होना
कुछ ही बचते है साथ बिताये पल कुरेदते
आखिर कैसे भूल जाऊ बेटा हुवा वर्तमान कैसे
मै ही तो था जिसने उनका अस्तित्व मिटाया
अपने इन्ही अपराधी हाथो से
घिन लगती है मुझे इनसे फिर भी खाता हु,
लिखता हु, आखिर क्यों
वाही झूठा स्वार्थ जिसकी पूर्ति करनी है
उसी के लिये ना
वह महँ आत्मा जिसका मै अंश हु
उसी का आस्तित्व मिटाया और अब
जुटा हु समाज को जगाने में
सचमुच मै अपराधी था, हु और रहूगा
क्यों बनाते हो इन बच्चो को साक्चर, आखिर क्यों
आखिर क्या देय हम साक्चरो ने इस देश को
भुखमरी, हाड मॉस का डोलता जंगल, नोटों की रद्दी
सिर्फ और सिर्फ साकचरो की रह गयी इतनी ही पूंजी
कितने साक्चर है जिन्होंने देश का विकास किया
कितने है जिन्होंने भारत माँ का सृंगार किया
जब साक्चर होने के बाद धर्म, समुदाय और माता पिता
सब बंट जाते है तो ऐसी साक्चरता का क्या लाभ
इन्हें निरक्चर ही रहने दो और सपने पिरोने दो
आज हम सब अपने आप पर रोते है
कम से कम कोई तो हो जिसे हमपर रोने दो
एक समय ऐसा आएगा दिल्ली होगा कब्रिस्तान
बड़े बड़े भूभागो पर होगी नेताओ की ही दास्ताँ
सभी मुर्तिया हस्ती होगी, तन्हाई पाकर मस्ती में
अकड़ अकड़ कर दंभ भरेगी, अपनी झूटी हस्ती पर
देखेगी जब रुख जनता का रो देगी सन्नाटे में
सोचेगी ये हाल देख का नहीं सोचा था कभी सपने में
तू निराकार है या साकार
सूली पर है या मठ में
मै क्या जानू
तू मस्जिद में या गुरूद्वारे में
गलियों में या चौराहों पर
मै नहीं तुझे है पहचानू
पर तुझपर है विश्वाश चिरंतर से मेरा
आकाश, पाताल हो या नदिया
समतल भूमि हो या चोटिया
तुम्हारे सृजन को मै देख रहा हु
मन ही मन मै पूज रहा हु
पर क्या तू ये बतला पायेगा
इंसानों की इस दुनिया में कब तक जिन्दा रह पायेगा
यदि तो है तो दे ही दे उत्तर इसका
मदमस्त हवा है छाई, ऋतू सावन की है आई
पड़ गए ड़ाल पर झूले, पवन चली पुरवाई
ऋतू सावन की है आई
हाथो में चूड़ी हरी हरी, झरती बुँदे है बड़ी बड़ी
सोधी खुशबू है छाई, ऋतू सावन की है आई
धान रोपाई शुरू हुई, धरती भी लगती धुली धुली
कोयल ने तान सुनाई, ऋतू सावन की है आई
मेघो का गर्जन सुखद लगे, चिरियो की बोली तन्द्रा हरे
हुयी सुरु बैलो से जुताई, ऋतू सावन की है आई
आड़ी तिरछी रेखाओ से कैसा इतिहास बनाते हो
कागज़ के इन ढेरो को क्यों तुम और बढ़ाते हो
बड़ी बड़ी पुस्तक लिख डाली अपनी झूटी शान में
अब भी तुम लिखते जाते हो कागज़ के इस गाव में
आड़ी तिरछी रेखाओ से कैसा इतिहास बनाते हो
कागज़ के इन ढेरो को क्यों तुम और बढ़ाते हो
ये जीता वो हरा हमे, ये पाया वो खोया है
यही तो किस्सागोई है तुम्हारे बनाये गाव में
कुछ तो नया आब लिख ही डालो
सुच्चाई की छाव में
सुच्चाई को मत मारो तुम सहरो में और गाव में
परिभाषा बदल रही है आज निष्ठा की
परिधि भी बदली है आज प्रतिष्ठा की
संबंधो में भी परिवर्तन परिलक्षित है
बोली लगे है बाजारों में सृष्टा की
इसी धुरी पर घूम रही है धरा हमारी
तिरिस्क्रित है आज प्रेम और प्रतिष्ठा भी
इस धरा पर मूल्य सभी का लग जाता है
संदेह के घरे में है आज निष्ठा भी
तू क्यों ढूढता है सकू इस जहा में
सभी इसकी खातिर सितम सह रहे है
फरेबी जहा में किसे कह दू अपना
जिसे देखो सब ही दगा दे रहे है
मेरे मालिक तू ही कोई हल बता दे
जहा भुर का गम अपने भीतर समां ले
तेरी ये अमानत भी महफूज़ नहीं अब
नफरतो की नस्तर दिलो में गड़े है
ये रिश्ते ये नाते कहा याद है अब
हर एक जगह पुर बुत ही खड़े है
तेरे इस जहा का नियम है निराला
इंसान ही इंसान के दुसमन बने है
क्या खूब है तेरी ये मायानगरी
कटपुटलियो के सहर के सहर बसे है
क्या लेगा तू जिम्मा इनके कियो का
तेरी उंगलियों पुर ये चल फिर रहे है
तू क्यों ढूढता है सकू इस जहा में
सभी इसकी खातिर सितम सह रहे है
फरेबी जहा में किसे कह दू अपना
जिसे देखो सब ही दगा दे रहे है
मेरे मालिक तू ही कोई हल बता दे
जहा भुर का गम अपने भीतर समां ले
तेरी ये अमानत भी महफूज़ नहीं अब
नफरतो की नस्तर दिलो में गड़े है
ये रिश्ते ये नाते कहा याद है अब
हर एक जगह पुर बुत ही खड़े है
तेरे इस जहा का नियम है निराला
इंसान ही इंसान के दुसमन बने है
क्या खूब है तेरी ये मायानगरी
कटपुटलियो के सहर के सहर बसे है
क्या लेगा तू जिम्मा इनके कियो का
तेरी उंगलियों पुर ये चल फिर रहे है
कुछ ही दिन आते है जब आती है याद सहीदो की
गूंज उठती है ये धरती देश भक्ति के गीतों से
कैसा सुकून होता है उस दिन, कैसी हस्ती है धरती
लगता है भारत का बचपन किलक रहा है गीतों से
पंछी भी गाते है गाना भारत माँ की शान में
उड़ जाते है अनंत आकाश में स्वंत्रता की छाव में
कुछ ही दिन आते है जब आती है याद सहीदो की
गूंज उठती है ये धरती देश भक्ति के गीतों से
क्या वैसा समां क्या वैसी छठा नहीं रह सकती है रोज यहाँ
क्या इस माटि की वैसी सुगंध उठ सकती है रोज़ यहाँ
सब संभव है मन में झाको सब नाच उठेगा
दुर्भाग्य देश का रो रो कर तुमको पुकार उठेगा
अपराध बोध से दो पग भी न चल पाओगे
अपने से ही अपनी नज़रे चुरा जाओगे
क्या नहीं झिझकता मन अपनों का खून चूसते
हे पशु मानव बन जा अपना जहर थूक दे
कर प्रयास और देश में भर दे तू खुशाली
तब बिखरेगी यहाँ पुनः प्रभात की लाली
मस्तक ऊचा कर के तू भी तब मर जाना
तेरे नाम का लोग यहाँ गायेगे गाना
तेरी माँ भी देवी होगी तेरी भी तब होगी पूजा
तेरे सत्कर्मो की राह पर होगा पैदा गाँधी दूजा
तब न होगी कमी यहाँ पर मतवालों की
नारी होगी रानी झासी पुरुष भी होगा आज़ाद और गाँधी
अलमस्त नहा रहे हो यमुना में तुम
झेल रहे हो समय की मार को हस्ते हस्ते
न मुमताज है न साह है फिर भी तुम तो
ऐसा लगता है जैसे कल ही तो बने हो
इस चांदनी रात में क्यों श्रिंगार करे हो
तन्हाई में किसका इंतजार करे हो
न वो वक्त है न वो लोग है समझ रहे हो
फिर भी अपनी संरचना पर अकड़ रहे हो
भूख पेट की सपने नहीं संजोने देती
इस सरीर को हसने और ना रोने देती
रोटी का बंदोबस्त ही ध्ये बन जाता है
ज्वाला पेट की चैन से नहीं है सोने देती
बिलख रहे है बालक पेट की भूख के मारे
है तो यह भी अपनी माँ की राजदुलारे
लेकिन माँ का दूध भी पेट ना भुर पता है
रोते रोते बच्चा चिपट कर सो जाता है
भरे पेट से समझ सको गे क्या इस जग को
क्या दोगे बोलो आखिर तुम इस जग को
वाही लूट का धन पेट भरने की खातिर
औरो को भूखा मारोगे अपनी खातिर
ना जाने कब समझ सकोगे तुम सच को प्यारे
औ अपनी माँ के प्यारे राजदुलारे
देश की खातिर आब तो एक पल जीना सीखो
एक रोटी में सभी बाँट कर खाना सीखो
ना रह जायेगा यह तन न भूख तुम्हारी
देश के कण कण से टपकेगी खुशहाली
हम न होगे फिर भी रहेगी याद हमारी

Sunday, May 2, 2010

रातों को जगकर यूं मुझको सुलाना,
परियों की मुझको कहानी सुनाना,
याद है मुझको बचपन की यादें,
माँ का वह आँचल वो ककहरे की किताबें...
भूखा बचपन अभावो से भरी जवानी,
इंसानों की भीड़ न दाना और न पानी.
घिसी-पिटी सी सोच दकियानूसी कहानी,
आओ हम सब मिल कर गायें हम है हिंदुस्तानी.