Thursday, December 14, 2017

सपने बाँटकर हर रोज़ गुज़र जाती है रात। हक़ीक़त और फँसाने में बड़ा फ़र्क़ होता है।। अंशुमान शुक्ल
हमसे क्यूँ माँगते हो रहबरी का हिसाब। चाँद जैसी ही होती है गोल-गोल रोटी।। अंशुमान शुक्ल 
शहर ने बढ़ाया जब गाँव की ओर क़दम।  हल खल चूल्हा चौकी सब दफ़ा हो गये।। अंशुमान शुक्ल
रोज़ सिसक कर मर रहे हैं गाँव खेत खलिहान। कहाँ से लाओगे तुम गृहस्थी का सामान।। अंशुमान शुक्ल
गाँव जब से शहर के फुटपाथों पर आ गया। रिश्तों की सोंधी सुगन्ध कहीं गुम हो गई।। अंशुमान शुक्ल