टोपियाँ कभी कभार जिन्दा होती हैं। एक खास सर टोपियों में जान फूंकता है।कभी पहन कर तो कभी न पहन कर। टोपियों से भी देश की निर्पेक्षता है। न पहनने पर मुबाहसे-बहस होती है।टोपियाँ कभी सर नहीं चुन पातीं।अब हांथ टोपियों के लिए सर चुनते हैं।किसी के कहने पर किसी के लिए।वो सियासी ताना-बाना बुनते हैं।टोपियाँ कभी कभार जिन्दा होती हैं।
अंशुमान शुक्ल
अंशुमान शुक्ल