Sunday, May 23, 2010

नीरवता तोडती है, बहुत गहरे तक प्रवाह को
आत्मबल अमरबेल सा पुरुषार्थ लपेटे, अपने होने का अहसास करता है बस
अभी और है इस पाठशाला में तुम्हारे लिये
सेखो भी और तोड़ो नीरवता असहनीय
आत्मबल पराजित नीरवता नहीं टूटी
न ही टुटा विश्वाश समय बहुत है
बिखरी पंखुरिय समेट फूल बनाने की बात
रक्तरंजित पाँव रक्तवर्णित छाप
फैले पंजे मति पर, करो की राह
आहात सुनने को मै बेताब
नीरवता फैली है चाहु ओर चाहु ओर
प्रफुल्लित ह्रदय वह नाच रहा है मोर
भोर, कोलाहल, हलाहल, मानव की बढती बाड़
पत्थरों के जंगल, धुवो के उठते गुबार
नीरवता अब भी वैसी है जैसी थी
किसे परवाह है इसकी समय कहा है
अब मै दोहरा रहा हू इस भीड़ में
एकला चलो रे एकला चलो रे

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