Sunday, May 23, 2010

अलमस्त नहा रहे हो यमुना में तुम
झेल रहे हो समय की मार को हस्ते हस्ते
न मुमताज है न साह है फिर भी तुम तो
ऐसा लगता है जैसे कल ही तो बने हो
इस चांदनी रात में क्यों श्रिंगार करे हो
तन्हाई में किसका इंतजार करे हो
न वो वक्त है न वो लोग है समझ रहे हो
फिर भी अपनी संरचना पर अकड़ रहे हो

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