Sunday, May 23, 2010

सूखी शाखे, बिखरे पत्ते, जमीन के बहार निकली जड़े
अस्तित्व का आखरी बिखराव
जलती सय्या, मिटते अस्तित्व को देखते स्वजन
घर जाने की जल्दी, भूख, थकान. इतनी जल्दी बीता हुवा कल होना
कुछ ही बचते है साथ बिताये पल कुरेदते
आखिर कैसे भूल जाऊ बेटा हुवा वर्तमान कैसे
मै ही तो था जिसने उनका अस्तित्व मिटाया
अपने इन्ही अपराधी हाथो से
घिन लगती है मुझे इनसे फिर भी खाता हु,
लिखता हु, आखिर क्यों
वाही झूठा स्वार्थ जिसकी पूर्ति करनी है
उसी के लिये ना
वह महँ आत्मा जिसका मै अंश हु
उसी का आस्तित्व मिटाया और अब
जुटा हु समाज को जगाने में
सचमुच मै अपराधी था, हु और रहूगा

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